नई दिल्ली: भारतीय राजनीति में बुधवार की सुबह एक बम विस्फोट हुआ! देश के मुखर और विवादित उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने कार्यकाल के दो साल बाकी रहते हुए अचानक इस्तीफा दे दिया, जिससे राजधानी में भूचाल आ गया। “स्वास्थ्य कारणों” का हवाला देते हुए दिए गए इस इस्तीफे के पीछे क्या वाकई सिर्फ सेहत है, या कोई बड़ा राजनीतिक तूफान छिपा है? कांग्रेस पहले ही इशारा कर चुकी है – “इसमें जो दिख रहा है, उससे कहीं ज्यादा है!”
तत्काल प्रभाव से इस्तीफा, पर आभार भी खूब
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को लिखे अपने संवेदनशील पत्र में धनखड़ ने कहा कि उनका इस्तीफा “तत्काल प्रभाव” से लागू होगा। उन्होंने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विशेष आभार जताया। अपने पत्र में उन्होंने लिखा: “हमारे महान लोकतंत्र में उपराष्ट्रपति के रूप में मुझे जो अमूल्य अनुभव और अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई है, उसके लिए मैं आपका तहे दिल से आभारी हूँ… हमारे राष्ट्र के इतिहास के इस परिवर्तनकारी युग में सेवा करना मेरे लिए एक सच्चा सम्मान रहा है।”
मुखरता की मिसाल: न्यायपालिका से लेकर विपक्ष तक को चुनौती
धनखड़ का कार्यकाल कभी शांत नहीं रहा। भारत के 14वें उपराष्ट्रपति के रूप में उन्होंने:
- न्यायपालिका को खुली चुनौती दी: शक्तियों के पृथक्करण के मुद्दे पर न्यायपालिका पर की गई उनकी तीखी टिप्पणियों ने बहस छेड़ दी। क्या यह टकराव उनके इस्तीफे की वजहों में शामिल है?
- विपक्ष से लगातार टकराव: राज्यसभा में उनकी अध्यक्षता विपक्ष के साथ निरंतर टकरावों से भरी रही। उन पर पक्षपात के आरोप लगे।
- इतिहास रचा: वे पहले उपराष्ट्रपति बने जिनके खिलाफ पद से हटाने की कोशिश की गई (हालांकि नाकाम)। उन्होंने इस नोटिस की तीखी आलोचना करते हुए कहा था कि यह “जंग लगे” चाकू से बाईपास सर्जरी करने जैसा है!
- रिकॉर्ड जीत: अगस्त 2022 में हुए चुनाव में उन्होंने विपक्ष की मार्गरेट अल्वा को 74.37% वोटों (528 vs 182) से हराया था – 1992 के बाद की सबसे बड़ी जीत।
किसान के बेटे से उपराष्ट्रपति तक का सफर
राजस्थान के छोटे से गांव किठाना के एक किसान परिवार में जन्मे जगदीप धनखड़ का सफर योग्यता और दृढ़ संकल्प की मिसाल है। चित्तौड़गढ़ के सैनिक स्कूल और राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र रहे धनखड़ पहले राजस्थान हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में वकील रहे। उनकी राजनीतिक यात्रा कांग्रेस से शुरू हुई (पी.वी. नरसिम्हा राव के समय), लेकिन बाद में वे भाजपा में शामिल हो गए और चंद्रशेखर सरकार में मंत्री भी रहे। वे जाट समुदाय सहित ओबीसी मुद्दों के मुखर प्रवक्ता रहे।
बंगाल के राज्यपाल के रूप में भी बवाल
2019 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बनने पर भी वे सुर्खियों में रहे। ममता बनर्जी सरकार के साथ उनका रिश्ता खट्टा रहा। उन्होंने बार-बार राज्य सरकार को कानून-व्यवस्था, संघवाद और विश्वविद्यालय नियुक्तियों जैसे मुद्दों पर घेरा, जिससे तनाव बना रहा।
अब क्या? सवालों के घेरे में इस्तीफा
जबकि धनखड़ ने इसी महीने की शुरुआत में कहा था कि वह “सही समय” पर, “ईश्वरीय कृपा” के अधीन, सेवानिवृत्त होंगे, इस अचानक और तत्काल प्रभावी इस्तीफे ने सभी को चौंका दिया है। क्या वाकई स्वास्थ्य ही एकमात्र वजह है? क्या उनकी सरकार से मतभेद बढ़े? क्या न्यायपालिका या विपक्ष के साथ चल रही खींचतान ने भूमिका निभाई? ये सवाल अब दिल्ली की गलियों में गूंज रहे हैं।
एक मुखर नेता जिसने हमेशा अपनी बात रखी, उसका इस तरह अचानक मैदान छोड़ देना निश्चित ही भारतीय राजनीति के एक उथल-पुथल भरे अध्याय का अंत है। लेकिन क्या यह अंतिम अध्याय है, या फिर कहीं और से कोई नया सुराग मिलेगा? पूरे देश की निगाहें अब राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय पर टिकी हैं। धनखड़ के बाद अब कौन? यह सवाल भी अहम हो गया है।